क्या सिर्फ मनुष्य जाति के लिए ही धर्म और अधर्म है?

Are religion and unrighteousness only for mankind? क्या सिर्फ मनुष्य जाति के लिए ही धर्म और अधर्म है?

Are religion and unrighteousness only for mankind?

क्या आप, पाप और पुण्य के बारे में जानते है? जरूर जानते होंगे। क्युकी कोई भी व्यक्ति, वह कैसा भी क्यों न हो, किसी भी विचारधारा या धर्म का हो, उसे सही और गलत, धर्म एवं अधर्म, और सत्य और असत्य के बीच में पहचान अवश्य होती है। इसे हम इस प्रकार से एक क्रम से समझते है। -

सत्य और असत्य -

शुरुआत हम अपने होने वाले या हो चुके बच्चो के जन्म से करते है, जिसे हम अपना जन्म समझते है। फिर हम देखते है की हमारे माता पिता ही हमें सबसे पहले सत्य और असत्य से परिचित करवाते है। जिसे हमारे माता पिता ने किया और हमें भी यही करना होगा। विदेशो में भी लोग अपने बच्चो को सही और गलत बताते है।  जैसे - ये काम गलत है, और वो काम सही है। जिसके आधार पर हमारा खुद का मस्तिष्क हमारी जिंदगी में होने वाली क्रिया कलापो को सही-गलत समझता है। 

सही और गलत -

अगर हमें सत्य और असत्य का पता होता है तो हम अपने हिसाब से सही या गलत रास्ता चुन सकते है। हम सबको पता है की सही रास्ता हमें सही जगह ले जाता है और गलत रास्ता हमेशा गलत परिणाम देता है। लेकिन कभी कभी हम मनुष्य डरते हुए भी गलत रास्ता चुनते है किसलिए सिर्फ त्वरित लाभ के लिए।

अगर आप सही और गलत को चुनने में असमर्थ हो रहे है, अर्थात आपके पास सत्य और असत्य का ज्ञान बहुत ही सीमित मात्रा में है। किसी भी रस्ते को चुनने से पहले उसमे समाहित सही और गलत कार्यो की सूची जरूर बनाये, और सत्य का पक्ष ही चुने। क्युकी जीत सत्य की होती है ये हम जानते तो है लेकिन मानते नहीं। 

धर्म एवं अधर्म - 

शास्त्रों में सही कर्म को धर्म और गलत कर्म को अधर्म की श्रेणी में डाला जाता रहा है। आपको क्या लगता है धर्म का मतलब कोई खास जाती विरादरी होती है? पता नहीं होती होगी। लेकिन हमारे शास्त्रों में सत्य अर्थात सच को धर्म और असत्य अर्थात झूठ को अधर्म कहते है। तो जैसे ही आप सत्य और असत्य का सहारा लेकर सही और गलत रास्ता चुनते है वैसे ही हम अपना धर्म और अधर्म निश्चित कर लेते है। 

अर्थात माता पिता ही हमारे सच्चे धर्म से हमें अवगत कराते है। इसीलिए पुराणों में भी माता पिता को मनुष्य का प्रथम गुरु माना गया है

श्री कृष्ण भगवान् भी अर्जुन से यही ज्ञान बताते है की मनुष्य का धर्म और अधर्म उसकी आत्मा उसे हर पल बताती है। ये मनुष्य पर निर्भर करता है की वो आत्मा की ज्यादा सुनता है या मतिष्क (मन) की। अर्थात धर्म और अधर्म का मतलब मनुष्य स्वयं निश्चित करता है। और ठीक उसी प्रकार से उसे उस धर्म और अधर्म का फल मिलता है। ये ध्यान रखना की इसकी शुरुआत सत्य और असत्य को चुनने से ही हो जाता है। 

पाप और पुण्य - 

पाप और पुण्य क्या है? मेरे हिसाब से पाप और पुण्य किसी भी मनुष्य के धर्म और अधर्म को मापने या तौलने के लिए एक इकाई की तरह काम करते है। क्युकी कोई भी व्यक्ति किस हद तक गलत काम जैसे चोरी, बलात्कार, असत्य बोलना, कपट करना, बुराई करना आदि कर सकता है और किस हद तक सही काम जैसे की दया, दान, क्षमा और प्रेम कर सकता है। 

सीधी भाषा में किसी भी यक्ति के धर्म या अधर्म से रहित कार्यो को हम पाप और पुण्य के द्वारा माप सकते है। 

आपको बता दे की -
अर्जुन भी भगवान् श्री कृष्ण से यही पूछते है की भगवान् क्या पाप और पुण्य केवल मनुष्य को प्रभावित करते है तो श्री कृष्ण भगवान् कहते है की - बिलकुल पाप और पुण्य सिर्फ मनुष्य के लिए है यह अन्य जीवो पर यह लागू नहीं होता। क्युकी करोङो योनियों में मनुष्य योनि ही केवल कर्म योनि  / उभय योनि है।  (अर्थात जैसा कर्म करेगा वैसा जीवन मिलेगा) बाकी की भोग योनि (अर्थात पिछले जन्मो के कर्मो के फलो को बिना कर्म किये भोगना होगा जैसे पशु पक्षी) है। 

Are religion and unrighteousness only for mankind?

प्रश्न :- कितने प्रकार की और कितनी योनियां हैं?

तीन प्रकार की योनियाँ हैं- 

१.कर्म योनि -

जो मनुष्य पाप और पुण्य से मुक्त होता है, उसे पुराने कर्मो का फल नहीं भोगना पड़ता। ऐसे लोग कर्म योनि में जन्म लेते है। ये लोग नए कर्मो के द्वारा अपना मोक्ष/ मुक्ति या नया जन्म निर्धारित करते है। पिछले जन्म में ये लोग ज्ञानी, तपस्वी, पुजारी, सत्य बोलने वाले, धार्मिक लोग होते है। जो शेष बचे पुण्यो को कमाते है ताकि भगवान् से मिलन हो सके। लेकिन इनमे से कुछ लोग मोह माया के जाल में फिर से फस कर भगवान् से दूर हो जाते है। तो कुछ लोग ज्ञान की शरण में जाते है, और सत्य से परिचित होने के बाद इन्हे अपने जन्म का आभास होता है, फिर अच्छे कर्मो के द्वारा भगवान् को प्राप्त होते है। 

परन्तु ध्यान रहे - अगर मृत्यु के समय अगर कोई लालसा मन में रह जाती है तो लाख अच्छे कर्मो के बाबजूद, आत्मा को भगवान् की नहीं बल्कि उसी लालसा के पूरा करने के लिए फिर से जन्म लेना पड़ता है। क्युकी जब तक कामना या इच्छा रहती है तब तक आत्मा भगवान् को प्राप्त नहीं कर सकती। 

३.उभय योनि - 

उभय योनि भी मनुष्य योनि ही है, जिसमे भगवान् मनुष्य को फिर से एक मौका देते है सुधरने का ताकि आत्मा और परमात्मा का मिलन हो सके।  जिसमें मनुष्य पूर्व कृत कर्मों के फल भोगता है और नये कर्म भी करता है। ऐसे मनुष्य पिछले कर्मो के कारण (कर्म योनि में किए गए कर्मो के परिणाम स्वरूप) दरिद्र, दुखी, जीवन व्यतीत करते है। 

3.भोग योनि - 

और अंत में आत्मा इस भोग योनि को प्राप्त होती है, क्युकी कर्म योनि में सुखी जीवन भोगते हुए जो कर्म करता है उससे उभय योनि में आता है। उभय योनि में भी मायाजाल में फस कर गलत कर्म करता है तो इन सब कर्मो को भोगने के लिए उसे भोग योनि प्राप्त होती है। 

अर्थात अन्य प्राणी जिस योनि में जन्म लेते है वो सभी भोग योनियां हैं जिसमें उन प्राणियों की आत्मायें अपने अपने पूर्वजन्मों में किये गये पाप व पुण्य कर्मों का फल भोगती हैं। ये भोग योनि में तब तक रहती है जब तक इनके पाप और पुण्य बराबर नहीं हो जाते।

लगता है आप भ्रमित हो रहे है - फिर इसे ऐसे समझते है। 

कर्म योनि = पाप और पुण्य से शून्य आत्मा मनुष्य जन्म लेकर नया कर्म करती है। ऐसे व्यक्ति पृथ्वी पर सुखी जीवन बिताते हुए कर्म करते है। 

उभय योनि = कर्म योनि में किये गए पाप और पुण्य का फल भोगते है, और साथ ही साथ नया कर्म भी करते है। ऐसे व्यक्ति पृथ्वी पर दुखी जीवन बिताते हुए कर्म करते है। 

भोग योनि = कर्म योनि और उभय योनि दोनों में ही यदि आत्मा भगवान् को भूल जाये तो उसे अपने कर्मो का फल भोग योनि में भोगना ही पड़ता है। जिसमे वो न तो नया कर्म कर सकता है और न ही भगवान् की भक्ति। 

जैसे 

बुरे से बुरे कर्म वाली आत्मा = सुअर की योनि प्राप्त होती है जो गंदगी का भक्षण करता है। 

मोह माया और लालची, स्वार्थी कर्म वाली आत्मा = रेस का घोडा, पालतू कुत्ता इत्यादि। 

कुल योनियाँ चौरासी लाख कही जाती है। स्वर्गवासी पं. लेखराम जी ने अनेक महात्माओं की साक्षी देकर यह लिखा है। चौरासी लाख योनियों की गणना इस प्रकार कही गयी है।

जल-जन्तु - ७ लाख,

पक्षी - १० लाख,

कीड़े-मकोड़े - ११ लाख,

पशु - २० लाख,

मनुष्य - ४ लाख और जड़ (अचल,स्थावर) ३२ लाख योनियाँ हैं।(देखो गीता रहस्य ले. तिलककृत पृष्ठ 154)

श्रेष्ठतम योनि:-

प्रश्न :- कर्म योनि और भोग योनि तो मैंने भी सुनी हैं।कर्म योनि तो मनुष्यों की है और भोग योनि पशुओं की। परन्तु यह उभय योनि तो आज ही नई सुनी है। इसका क्या आशय है?

जो तुमने सुन रखा है,वह भी यथार्थ नहीं। वास्तव में भोग योनि वही है जिसमें केवल भोग ही भोगा जाता है और कर्म नहीं किया जाता। वह बंदी के समान है,उसे ही पशु योनि कहते हैं। उभय योनि वह है जिसमें पिछले कर्मों का फल भी भोगा जाता है और आगे के लिए कर्म भी किया जाता है। वह योनि मनुष्य योनि कहलाती है। फिर यह कर्म योनि भी दो प्रकार की है।

 एक तो वह जो आदि सृष्टि में बिना माता-पिता के मुक्ति से लौटे हुए जीव सृष्टि उत्पन्न करने मात्र के लिए पैदा होते हैं। उसे अमैथुनी कहते हैं,दूसरे वह जो माता-पिता के संयोग से पैदा होते हैं। वह मैथुनी कहलाते हैं। उनका जन्म केवल मोक्ष प्राप्ति के साधन और मुक्ति पाने योग्य ज्ञान प्राप्त करने के लिए ही होता है। ऐसे कर्म योनि वाले जीवों ने जन्म-जन्मान्तरों में तप किया होता है। 

 उसके प्रभाव से अपनी केवल थोड़ी सी कसर पूरी करने के लिए जन्म लेते हैं। उन पर भगवान की दया होती है।वह कर्म योग, ज्ञान योग अथवा भक्ति योग द्वारा किसी फल की इच्छा किये बिना निष्काम-भावना से कर्म करते हैं, इसलिए वह मुक्त हो जाते हैं। जैसे आदि सृष्टि में अग्नि,वायु,अंगिरा आदि ऋषि बिना माता-पिता के हुए और वर्तमान काल में महाराजा जनक, महात्मा बुद्ध, भगवान शंकर, महर्षि दयानन्द कपिल मुनि आदि हो चुके हैं।

योनि-चक्र:-

प्रश्न :- मनुष्य किन-किन कर्मों के कारण पशु योनि में पहुंच जाता है? और क्या यह प्रसिद्ध लोकोक्ति सत्य नहीं कि-

मनुष्य जन्म दुर्लभ है मिले न बारम्बार।

तरुवर से पत्ता झड़े, फिर न लागे डार ।।

अर्थात् - जब मनुष्य एक बार पशु-योनि में चला जाता है तो फिर उसको मनुष्य जन्म नहीं मिलता।

उत्तर:- यह महात्माओं का अपना-अपना अनुभव है। उनका यह विचार है कि प्रभु बड़े दयालु हैं।अपने अमृत पुत्रों (जीवों) को उनके कर्मानुसार ,केवल उनके सुधारने के लिए जन्म देते हैं।वह उन्हें अपनी ओर बार-बार उठने और आने का अवसर देते हैं।जैसे मान लो,कोई मनुष्य ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुआ,परन्तु उसने वहाँ शुभ कर्म नहीं किये।प्रभु को भूल गया,कभी याद नहीं किया तो भगवान् अगले जन्म में उसे गिराकर क्षत्रिय कुल में जन्म देंगे,कि वह फिर सँभलकर अपनी उन्नति कर सके।यदि यहाँ भी उसने अपनी योग्यता को सिद्ध नहीं किया तो तीसरा जन्म उसे वैश्य के घर में देंगे।

यदि वह वहाँ भी न उठा और भगवान को भूला रहा,तो उसे शूद्र योनि में डालेंगे।यदि वह वहाँ भी न संभला और भगवान् ने देखा कि यह मूढ़मति भूलकर भी मेरा नाम नहीं लेता,उपकार नहीं मानता और शुभकर्मों की और रुचि नहीं करता और नित्य बुरे कर्मों में ही लीन रहता है, तो उसे पशु-पक्षी की योनि में डाल देंगे। कर्मानुसार यथोचित योनियां भुगताकर फिर कभी किसी समय नये सिरे से मनुष्य योनि प्रदान करेंगे,जिससे वह पहले समय किये हुए अशुभ कर्मों के प्रभाव से मुक्त और पवित्र होकर, यदि चाहे तो फिर अपना उद्धार कर ले और धीरे-धीरे आवागमन से छुटकारा पाकर परम पद प्राप्त कर सके। परन्तु यह भयानक कथा साधारण मनुष्यों के लिए है कि वह मनुष्य योनि का मूल्य समझें और इसको अपनावे। पापों से बचते रहें और परमात्मा को न भूलें।

अब मैं तुम्हें वेद-शास्त्रों के आधार पर इसका मर्म बतलाता हूं। भगवान् मनु ने भी यही लिखा है कि प्रभु वास्तव में जीव को उसके सुधार तथा उपकार के लिए बार-बार जन्म देते हैं। परन्तु ऐसा नहीं करते कि एक ही बार उसे मनुष्य जातियों की उत्तम योनियां देकर फिर नीच पशु आदि योनियों में भेज दें वरन् उनके भले-बुरे कर्मानुसार उनका योनि-क्रम साथ ही साथ बदलता रहता है।

देखिए:-

शुभाशुभफलं कर्म मनोवाग्दैवतं भवम् ।

कर्मजा गतयो नृणाम् उत्तमाधममध्यमाः।।

तस्येह त्रिविधस्यापि अधिष्ठानस्य देहिनः।

दशलक्षणयुक्तस्य,मनो विद्यात् प्रवर्तकम् ।।

परद्रव्येष्वभिध्यानं मनसानिष्टचिन्तनम् ।

वितथाभिनिवेशश्च त्रिविधं कर्म मानसम् ।।

पारुष्यमनृतं चैव पैशुन्यं चापि सर्वशः ।

असंबद्धप्रलापश्च,वांग्मयं स्याच्चतुर्विधम् ।।

अदत्तानामुपादानं,हिंसा चैवा विधानतः ।

परदारोपसेवा च शारीरं त्रिविधं स्मृतम् ।।

मानसं मन सैवायम् उपभुक्ते शुभाशुभम् ।

वाचा वाचाकृतं कर्म कायेनैव च कायिकम् ।।

शरीरजैः कर्मदौषैर्याति स्थावरतां नरः ।

वाचिकैः पक्षिमृगतां मानसैरन्त्यजातिताम् ।।

अर्थात्:- शारीरिक कर्म-दोष से मनुष्य स्थावरता (पेड़ आदि योनियों)को,वाणी के कर्म-दोष से पशु-पक्षी आदि योनियों को और मानसिक पापों के कारण चाण्डाल आदि की नीच मनुष्य की योनियों को प्राप्त होता है।

शुभाशुभ फल देने वाले कर्मों का उत्पत्ति स्थान मन,वचन और शरीर है।इन कर्मों से ही उत्तम,मध्यम और अधम गति प्राप्त होती है।

इस देह सम्बन्धी त्रिविध (तीन प्रकार के उत्तम,मध्यम और अधम) तथा दस लक्षणों से युक्त तीन(मानसिक,वाचिक और दैहिक) अधिष्ठानों के आश्रित कर्मों का प्रवर्तक मन ही है।अर्थात् मन ही अच्छे और बुरे कर्मों का कारण है।

अन्याय से दूसरों का धन छीनने की बात सोचते रहना,दूसरों का अनिष्ट (बुरा सोचना) चिंतन,मन में मिथ्या भयनिवेश अर्थात् यह सोचना कि यह शरीर ही आत्मा है और परलोक कोई नहीं,यह तीन प्रकार के मानस कर्म हैं जो अशुभ फल देने वाले होते हैं।

कठोर बोलना, झूठ बोलना, दूसरे के दोषों को कहते रहना और निरभिप्राय बात करना,ये चार वाणी के पाप हैं,अशुभ फल के दाता हैं।

दूसरों की वस्तुओं को बलपूर्वक ले लेना,अवैध हिंसा और परस्त्री गमन यह तीन प्रकार के शारीरिक पाप-कर्म हैं जिनका फल कभी शुभ नहीं हो सकता।

इससे आगे महर्षि मनु कहते हैं:-

यद्यदाचरति धर्मः प्रायशोऽधर्ममल्पशः ।

तैरेव चावृतो भूतैः स्वर्गसुखमुपाश्नुते ।।

यदि तु प्रायशोऽधर्मं सेवते धर्ममल्पशः ।

तैर्भूतैः स परित्यक्तो यामीः प्राप्नोति यातनाः ।।

यामीस्ता यातनाः प्राप्य स जीवो वीतकल्मषः ।

तान्येव पंचभूतानि पुनरप्येति भागशः ।।

 (मनु० १२ ,१० ,२२)*

अर्थात्- जब मनुष्य के पाप अधिक और पुण्य कम होते हैं,तब उसका जीव पशु आदि नीच योनियों में जाता है।जब धर्म अधिक और पाप वा अधर्म कम होता है,तब उसे विद्वानों का शरीर मिलता है और जब पाप तथा पुण्य बराबर-बराबर होते हैं,तब साधारण मनुष्य जन्म पाता है।

प्रश्न :- तो फिर पशु से मनुष्य कैसे बनता है?

उत्तर:- जब पाप अधिक होने का फल पशु आदि योनि में भोग लिया तो पाप और पुण्य समतुल्य रह जाने से फिर मनुष्य शरीर मिल जाता है और पुण्य के फल भोग से साधारण मनुष्य शरीर प्राप्त करता है।

पाचों दरवाजों पर रखें कड़ा पहरा!!!!!!!

जरा सी चूक हुई नहीं कि चोट लगना तय है। आघात, प्रहार और हमला हमेशा इस ताक में ही रहते हैं कि मौका मिले आरै टूट पड़ें। गहरी जिंदगी जीने के अनुभवी तो यहां तक कहते हैं कि, कमजोरी तो खुद ही आक्रमणों को न्योता देती है। कहने का मतलब यह कि कमजोरी अथवा निर्बलता में शत्रुओं के लिये एक प्रकार का आकर्षण होता है। यह मात्र अनुभवों की ही नहीं बल्कि पूर्णत: मनोवैज्ञानिक सत्य भी है।

ठोकरें खा-खाकर इंसान थोड़ा संभल कर चलना सीख ही जाता है। वह अपने जान-माल की हिफाजत के लिये सजग और चौकन्ना रहने लगता है। किन्तु इंसान की प्रकृति ही कुछ ऐसी है कि वह कम महत्व की वस्तु की तो देख-रेख कर लेता है किन्तु अनमोल चीजों को भूल जाता है। उसकी ऐसी ही भूल है अपने व्यक्तित्व की अनदेखी करना। मनुष्य को ईश्वर ने पांच इंद्रियां दी हैं जो सहायक बनकर काम आती हैं। ये पांचों इंद्रिया ही वे पांच दरवाजे हैं जिनसे होकर, व्यक्तित्व को नष्ट करने वाले शत्रु प्रवेश करते हैं। ये दरवाजे कुछ इस तरह हैं-

१. नेत्र- आखों से होकर ही ऐसे दृश्य आते हैं जो विकृति पैदा करते हैं।

२. कान- इनसे होकर ही वे शब्द घुसते हैं जो मस्तिष्क को अशांत करते हैं।

३. जीभ- इसकी रजामंदी से वे चीजें शरीर में चली जाती हैं जिनका जाना उचित नहीं था।

४. नाकिका- इसकी लापरवाही से ही व्यक्तित्व दुर्गंधों का आदि हो गया।

५. त्वचा- न छूने लायक के स्पर्श की अनुमति मन को देकर पवित्रता को नष्ट इसी से होकर किया गया।

अत: यदि कोई अपने व्यक्तित्व का घातक शत्रुओं से बचाना चाहे तो उसे इन पांचों दरवाजों पर कड़ा पहरा रखना होगा।


 *साभार: "कर्म भोग-चक्र" पुस्तक*

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