अंग्रेज़ी भाषा क्या भारतीयों के लिए शक्ति है या शर्म?

शक्ति बनाम शर्म के इस विमर्श को गहराई से समझें — बिना किसी पूर्वाग्रह के, मेरे नज़रिये से। कभी-कभी अंग्रेजी शर्म का कारण बन जाती है जब Is English lang

भारत जैसे बहुभाषी और सांस्कृतिक रूप से समृद्ध देश में यह सवाल केवल भाषा का नहीं, पहचान, आत्मसम्मान और शिक्षा के स्वरूप का है। जहाँ एक ओर अंग्रेज़ी वैश्विक अवसरों के द्वार खोलती है, तो दूसरी ओर अपने ही देश में किसी को “कमतर” बना देती है, सिर्फ इसलिए कि वह अंग्रेज़ी नहीं जानता। क्या भारत में अंग्रेज़ी वाकई ज्ञान की भाषा है? या फिर यह भाषा, कुछ छिपे हुए एजेंडों का माध्यम बन गई है? 

आइए, शक्ति बनाम शर्म के इस विमर्श को गहराई से समझें — बिना किसी पूर्वाग्रह के, सिर्फ मेरे नज़रिये से। Know What I think about Is English language a power or shame for Bhartiyas?

शक्ति बनाम शर्म के इस विमर्श को गहराई से समझें — बिना किसी पूर्वाग्रह के, मेरे नज़रिये से। कभी-कभी अंग्रेजी शर्म का कारण बन जाती है जब Is English language a power or shame for Indians?

अंग्रेजी भाषा शक्ति है जब -

  • यह हमें वैश्विक स्तर पर संवाद करने की क्षमता देती है — तकनीक, विज्ञान, और व्यवसाय में तो यह जैसे पासपोर्ट है।
  • हम इसका प्रयोग अपनी बात दुनिया तक पहुँचाने या नए अवसरों को अपनाने के लिए करते हैं।

और कभी-कभी अंग्रेजी शर्म का कारण बन जाती है जब -

  • हम केवल इसलिए अपनी मातृभाषा को हेय समझते हैं, क्योंकि हमने अंग्रेज़ी को श्रेष्ठता का प्रतीक बना लिया है।
  • कोई व्यक्ति अंग्रेज़ी नहीं जानता, और उसे नीचा महसूस कराया जाता है — तब यह भाषा नहीं, हमारी मानसिकता का प्रतिबिंब बनती है।

असल में, भाषा कभी शर्म नहीं होती — वह तो केवल एक साधन है। शक्ति या कमजोरी हम उसमें कैसे अर्थ भरते हैं, इस पर निर्भर करता है।

भारतीयों के लिए शक्ति या मानसिक पराधीनता -

अक्सर हम भाषा को ज्ञान का पर्याय मान लेते हैं, जबकि असली ज़रूरत तो कौशल आधारित शिक्षा और जीवनोपयोगी समझ की होती है। अंग्रेज़ी सीखना बुरा नहीं है — लेकिन अगर यह बच्चों की ताकत बनने के बजाय बाधा बन जाए, तो सोचने की ज़रूरत है।

भारत जैसे बहुभाषी देश में यदि शिक्षा मातृभाषा में हो तो बच्चा सोच पाता है, समझ पाता है, और खुद को अभिव्यक्त कर पाता है। लेकिन जब शुरुआत से ही अंग्रेज़ी थोप दी जाती है, तो बच्चे का ध्यान भाषा पर अटक जाता है — न कि विषयवस्तु पर। नतीजा? न वो विज्ञान समझ पाते हैं, न गणित से गहराई बना पाते हैं, और न ही कोई व्यावसायिक या तकनीकी कौशल विकसित कर पाते हैं — जो असल में जीवन में गरीबी से बाहर लाने का रास्ता होता। और यह सिर्फ आर्थिक गरीबी की नहीं, अवसरों की भी गरीबी बन जाती है। ये सिर्फ भाषा की बात नहीं है, पहचान, आत्मसम्मान और अवसर की भी बात है। और यह सब तब हुआ, जब भारतीय भाषाओं में भी गणित, विज्ञान, न्याय और दर्शन की हज़ारो वर्षो की परंपरा रही है। 

मातृभाषा की अनदेखी – आत्महत्या नहीं तो क्या?

अंग्रेज़ी सीखना कोई दोष नहीं है, बल्कि यह एक ज़रूरी कौशल बन चुका है — खासकर अगर हमें वैश्विक तकनीक, विज्ञान या मार्केट से जुड़ना है। लेकिन यहाँ अपने पूरे Education System को शिक्षा तंत्र की जड़ बना दिया जाता है, तो उसका असर बहुत गहरा पड़ता है, गाँवों और छोटे कस्बों के बच्चों को शिक्षा के नाम पर द्वार नहीं, दीवार मिलती है — क्योंकि भाषा ही सबसे बड़ी बाधा बन जाती है। और यही नहीं, कई प्रतिभाएं अपनी ही मिट्टी में दबकर रह जाती हैं, सिर्फ इसलिए कि उन्होंने अंग्रेज़ी में “self-introduction” सही नहीं बोला।

पूरे एजुकेशन सिस्टम को इंग्लिश भाषा के हवाले करके फिर उस इंग्लिश के माध्यम से कुतर्को का प्रवेश करवाया जाता है, फिर वह एजुकेशन ‘तर्क’ नहीं, सिर्फ किसी न किसी विचारधारा का 'प्रचार' रह जाता है। क्युकी जब तक भारत में बच्चा इंग्लिश भाषा को अच्छी तरह से सीखता है, तब तक उसे रोटी कमाने की चिंता होने लगती है, फिर तर्क और वितर्क के लिए समय कहा बचता है। और वो विचारधारा का 'प्रचार' धीमे जहर की तरह अपना कार्य कर रहा होता है। उदाहरण के लिए धर्म-परिवर्तन। 

वामपंथियों से प्रभावित पार्टियां या कुछ वैचारिक रूप से प्रेरित समूह या राजनीतिक दल, जो भाषाई  औपनिवेशिकता या सांस्कृतिक विकृति को समर्थन देते हैं या ऐसे दल जिनके एजेंडे में शिक्षा नहीं, विचारधारा का प्रसार प्राथमिकता बन चुका है, उन्होंने आज तक कभी किसी को नहीं बताया कि चीन ने अंग्रेज़ी को “उपयोग की भाषा” बनाया न की पूरे एजुकेशन सिस्टम को ही इंग्लिश में बदल दिया।  — सिर्फ विज्ञान, तकनीक, और व्यापार में जानकारी पाने के लिए। लेकिन शिक्षा, प्रशासन और सांस्कृतिक कार्यक्रम पूरी तरह चीनी भाषा में चलते हैं, जिससे आम आदमी भी ज्ञान का भागीदार बनता है। यहाँ तक आज भी उनके सॉफ्टवेयर चीनी भाषा में है, उनके अच्छे डॉक्टर, सॉफ्टवेयर इंजीनियर को इंग्लिश बोलना नहीं आता। मैं सॉफ्टवेयर की लाइन में हु तो मुझे पता है जिन-जिन लोगो से मेरी बात हुयी तो वे इंग्लिश बोलने में उतने पक्के नहीं थे, जितने कौशल में थे। 

अगर शिक्षा मातृभाषा या क्षेत्रीय भाषा में हो, बच्चे विषय को स्वाभाविक रूप से समझते हैं, सोचने-समझने और नवाचार करने की क्षमता बढ़ती है, और उनके आत्मविश्वास का विकास होता है। एक मज़बूत राष्ट्र वही होता है जो दूसरों की भाषा सीखे, पर अपनी भाषा में सोचने की ताक़त बनाए रखे। 

क्या इतना समझना राकेट साइंस है? या फिर गले में विदेशी पट्टा बंधा है? तो जिसके अंदर विवेक होगा वो समझ जायेगा। और जिनके अंदर बुध्दि होगी वे इसको समझेंगे की नहीं उनके परिवार की जड़ो पर निर्भर करता है।  

जब भाषा का माध्यम अंग्रेज़ी होता है, लेकिन विचार और उद्देश्य किसी छिपे हुए एजेंडे से प्रेरित होते हैं, तो शिक्षा नहीं, प्रचार होता है। दुर्भाग्य से, कई विदेशी संगठनों द्वारा इसी ‘शिक्षा तंत्र’ के माध्यम से भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में धर्म परिवर्तन की कोशिशें की जाती हैं — जिसमें भाषा एक हथियार बन जाती है, और जड़ों से कटाव, सबसे बड़ा शिकार।

क्या आपने कभी सोचा है? — एक बच्चा जिसने अभी ठीक से अपने एजुकेशन सिस्टम को भी नहीं समझा, उससे हम ऐसी भाषा में सोचने की उम्मीद रखते हैं जो उसकी अपनी नहीं है? 22 से अधिक संविधान मान्य भाषाएं और 120 से अधिक प्रमुख भाषाएँ बोली जाती हैं। फिर भी, आज भी अंग्रेज़ी को ज्ञान, बुद्धिमत्ता और सफलता का पैमाना मान लिया गया है... क्यों? 


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