आज कल आप ये प्रश्न किसे से भी पूछे तो वह यही कहेगा कि शून्य का अर्थ होता है - "कुछ नहीं". अर्थात "खाली पात्र". लेकिन सनातन धर्म के अनुसार शून्य का अ
आज कल आप ये प्रश्न किसे से भी पूछे तो वह यही कहेगा कि शून्य का अर्थ होता है - "कुछ नहीं".
लेकिन सनातन धर्म के अनुसार शून्य का अर्थ यह नहीं होता है। इसका उदाहरण नीचे देता हूँ।
जब कंस अपनी बहन और बहनोई बासुदेव को रथ में स्वयं विवाह उपरांत छोड़ने जा रहा था, तो उसी समय एक आकाशवाणी हुयी कि - मुर्ख कंस तेरे पाप का घड़ा भर गया है, तेरी बहन देवकी की आठमी संतान ही तेरा वध करेगी".
वह डर जाता है, अपने महल में विद्वानों से विचारविमर्श करता है, तो निष्कर्ष निकलता है कि जब आठमी संतान होगी तब उसे समाप्त कर दिया जायेगा।
लेकिन श्रीनारद जी कंस के महल में पहुंच कर, हाथ में कमल का पुष्प लेकर कंस को समझाते है, कि आप बताइये इसमें आठ नंबर का पंखुड़ी कौन सी है?
कंस यह देखकर घबरा जाता है, और वह देवकी की सभी संतानों को मारने की तय कर लेता है।
ठीक इसी प्रकार से हम शून्य की अवधारणा को समझते है।
पहले पथ को समझे -
सूर्य जो श्रीनारायण का रूप है, इसलिए उन्हें सूर्यनारायण भी कहा जाता है। उन्हें केंद्र में रखकर सभी गृह परिक्रमा कर रहे है।
पृथ्वी सूर्य परिक्रमा के साथ साथ, स्वयं भी घूम रही है, अर्थात अखिल ब्रह्माण्ड की शक्ति की परिक्रमा कर रही है।
हम किसी भी मंदिर जाते है तो उस मंदिर में विराजमान शक्ति को केंद्र में रखकर परिक्रमा करते है, अगर किसी मंदिर में परिक्रमा मार्ग नहीं है, या जगह नहीं है तो स्वयं से घूमकर अखिल ब्रह्माण्ड की शक्ति की परिक्रमा कर लेते है।
अब परिणाम को समझे -
पृथ्वी या हम जब परिक्रमा के दौरान जिस जगह से चले थे, उसी जगह पर वापस आ गए तो क्या इसे शून्य कहा जायेगा? नहीं न। गणना के हिसाब से जो पहले शून्य था वह अब एक में बदल जायेगा। तो वह स्थान शून्य नहीं रह गया।
इसी प्रकार जब हम द्वैत से चलकर अद्वैत तक पहुंचते है, तो वह स्थान द्वैत से बदलकर अद्वैत हो जाता है।
अद्वैत और द्वैत क्या है?
बहुत ही संक्षिप्त में बताने का प्रयत्न करता हूँ। -
द्वैत-
अर्थात किसी शक्ति और जीव को भिन्न भिन्न रूप में सम्मान करना, प्रेम करना, वस्तु देना (पूजा-पाठ करना ), अर्थात द्वैत के माध्यम से अपने अंदर ऐसे भाव को प्रकट करे, जिसमे नामजप या उस शक्ति को याद करने की आदत पड़े. लेकिन शुध्द-भाव को प्रकट करने के लिए ज्ञान प्राप्त करना सबसे ज्यादा जरुरी है।
आपने देखा होगा की जब आप किसी को याद करते है, तो जिसको याद किया उसे इस बात का पता चल जाता है। तो इस स्थिति में द्वैत अर्थात मैं और आप अर्थात दो है।
अद्वैत -
द्वैत के माध्यम से प्राप्त ज्ञान के अनुसार, हमारे अंदर ज्ञान पैदा होता है, और हम उस ज्ञान के माध्यम से पहचान करना सीखते है, और पहचान कर नेति नेति अर्थात ये भी नहीं, वो भी नहीं कहते कहते है आगे बढ़ते है। जब ये भी नहीं, और वो भी नहीं, अर्थात जो बचता है।, तो इसे अद्वैत कहते है।
अब वापस आते है कि शून्य किसे कहते है? -
कंस की कहानी से पता चला कि शुरू होने का विन्दु अर्थात शून्य की निश्चित स्थिति नहीं है।
ब्रह्माण्ड के गृह या हमारी परिक्रमा से पता चला कि अनिश्चित स्थिति अर्थात शून्य से कोई पथ बना तो है।
और अगर द्वैत और अद्वैत को अपनी परिक्रमा का पथ माने तो हम द्वैत से अद्वैत की ओर परिक्रमा कर रहे है। लेकिन पुनः लौटकर उसी स्थान पर वापस आते है तब स्थिति शून्य की नहीं होती, क्युकी तब तक हमें कुछ न कुछ ज्ञान हो जाता है।
तो शून्य का निष्कर्ष निकलता है -
अपने अज्ञान (शून्य की अनिश्चित स्थिति) से निकलकर ज्ञान (शून्य की निश्चित स्थिति) की जानकरी होना ही वह स्थान शून्य है।
इस शून्य की निश्चित स्थिति से अगर कंस गणना करेगा तो उसे देवकी की आठवीं संतान अर्थात भगवान् तक पहुंच जाएगा ।
परिक्रमा के दौरान दुबारा से वह स्थान शून्य अर्थात अज्ञान अर्थात द्वैत नहीं होता। क्युकी कुछ न कुछ ज्ञान प्राप्त होता है तभी आगे बढ़ता है।
यही शून्य है। तो आप इसे अपने दिमाग रखिये कि शून्य एक संख्या है, लेकिन शून्य का अर्थ "कुछ नहीं" कदापि नहीं बल्कि -
शून्य की अनिश्चित स्थिति का होने का अर्थ उसका कोई मान नहीं अर्थात - अज्ञानता
शून्य की निश्चित स्थिति का होने का अर्थ उसका मान और सम्मान है अर्थात - ज्ञान
This is zero. So keep it in your mind that zero is a number, but zero means "nothing" Naver rather -
The indefinite state of zero means it has no value i.e. - ignorance
The definite state of zero means it has respect and honour i.e. - knowledge.
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ध्यान दे - यह जानकारी स्वयं के विचारों और ज्ञान पर आधारित है, वास्तविकता अन्य के ज्ञान के आधार पर भिन्न भी हो सकती है।
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