शंकराचार्य जी सहित सभी धर्मगुरु, जिनसे कोई प्रश्न नहीं पूछ सकता? Halaal Prasad in West Bengal आज जग्गन्नाथ मंदिर बना है, कल केदारनाथ, बद्रीनाथ, रामेश्
अक्सर कथावाचक कहते हैं कि शंकराचार्य से प्रश्न पूछना अनुचित है — क्या वास्तव में यह हमारी शास्त्र परंपरा का हिस्सा है?। हो सकता है कि उन्हें ये अधिकार न हो, लेकिन विनम्रता के साथ अगर भक्त भगवान् से, पुत्र अपने माता पिता से, और शिष्य या आमजन अपने गुरु से प्रश्न पूछने के लिए भी अधिकृत होने लगे तो कैसा होगा, ऐसा सोचना कि 'ज्ञान या सत्ता में बैठे व्यक्ति से विनम्रता से सवाल नहीं किया जा सकता,' मुझे सही नहीं लगता।" प्रश्न, विवेक और संवाद तो सनातन परंपरा की आत्मा है। नचिकेता, गार्गी, याज्ञवल्क्य — सबने प्रश्नों से ही सत्य तक पहुंच बनाई थी।
क्युकी अगर ऐसा होता तो शास्त्रों में ज्यादातर प्रश्नो के उत्तर उन्हें ही मिलते जो प्रश्न पूछने के अधिकारी होते।
यह प्रश्न पूछने का अधिकार मुझे आज एक और गहन मुद्दे पर विचार करने को मजबूर कर रहा है: क्या हमारे धर्मगुरु वर्तमान में सामने आ रही धार्मिक शुद्धता की चुनौतियों पर भी उतने ही स्पष्ट हैं, जितना वे प्रवचनों में होते हैं?
आज मेरे दिमाग ये प्रश्न आया है कि क्या शंकराचार्य जी सहित अन्य सभी कथा वाचक और साधू संत क्या बंगाल के दूसरे तथाकथित जग्गनाथ मंदिर, जहाँ प्रसाद बनाने वाले दूसरे समुदाय के लोग हलाल कवाब भी बेंचते है, जैसा कि नवभारत टाइम्स की खबर न्यूज़ की पाठशाला 20 जून २०२५ को दिखाया गया, से सहमत है?
आज मेरे मन में प्रश्न उठा है —
क्या शंकराचार्य जी सहित सभी कथावाचक और साधु-संत, पश्चिम बंगाल के दीघा स्थित तथाकथित जगन्नाथ मंदिर में हो रही घटनाओं से सहमत हैं?
Times Now Navbharat आदि चैनलों से यह दावा सामने आया है कि दीघा के जगन्नाथ मंदिर का प्रसाद बनाने का ठेका मुस्लिम दुकानदार राजू शेख को दिया गया, जो हलाल कबाब भी बनाता है। इससे सवाल उठ रहा है कि प्रसाद कितना पवित्र और शुद्ध होगा यह केवल प्रसाद की बात नहीं है, बल्कि उस मानसिकता की भी है जो शुद्धता के मूल शास्त्र-सिद्धांतों को नज़रअंदाज करती है। अगर हमारे धर्मगुरु ऐसे मामलों पर मौन रहते हैं, यहाँ तक कि 'रोटी में थूक' जैसे सार्वजनिक रूप से सामने आए मुद्दों पर भी कोई स्पष्टीकरण या दिशा नहीं दे पाते, तो..उन्होंने इसे भगवान् की इच्छा मान रखा है। तो इसका मतलब यह है कि हम सब धर्म और अधर्म की परिभाषा को धुंधला कर रहे हैं।
एक ओर वक्फ बोर्ड जैसी संस्थाएं स्पष्ट करती हैं कि वे अपने धार्मिक मामलों में किसी दूसरे धर्म के हस्तक्षेप को स्वीकार नहीं करेंगी — और वह उनका अधिकार है।
तो क्या हिन्दू मंदिरों के लिए यह अधिकार नहीं होना चाहिए कि भगवान का प्रसाद — एक धार्मिक आचरण, जिसे मुख्यतः ब्राह्मण के द्वारा तैयार किया जाना चाहिए— कम से कम सनातन धर्म की भावना और शुद्धता अनुसार बने?
यह कोई व्यापारिक वस्तु नहीं, यह ईश्वर को अर्पित चीज़ है। कम से कम सनातनी के हाथो ही तैयार हो तभी तो शुद्ध और अशुद्ध के नियम मान्य होंगे, लेकिन इस सबको देखकर चुप रहना मुझे तो अधर्म दिखाई देता है।
प्रसाद बनाना एक धार्मिक क्रिया है -
मंदिर प्रशासन या सरकार को ऐसा ठेका केवल उन्हीं को देना चाहिए जो धर्म की परंपराओं और मर्यादा का पालन करें।
समान नागरिक अधिकार बनाम धार्मिक भावना -
संविधान व्यवसाय में भेदभाव की अनुमति नहीं देता, लेकिन धार्मिक संस्थाओं को उनके परंपरागत रीति-रिवाज़ों से संचालन का अधिकार देता है
अगर संतों को लगता है कि कोर्ट में जाना ग्रहस्थों का काम है, तो फिर उन्होंने गृहस्थी क्यों त्यागी? यदि धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँची है, तो क्या संत समाज न्यायालय में जाकर धर्म की रक्षा नहीं कर सकते? हाँ जिन संत परम्परोओं या मंदिरो को दान अर्थात द्रव्य नहीं मिलता है या कम मिलता है उनकी मजबूरी समझ सकता हु, क्युकी बिना साधन, अपने साध्य तक पहुंचना कठिन होता है। लेकिन अन्य का क्या ? क्या वे बांग्लादेश जैसी स्थिति की प्रतीक्षा में है? वे चाहे तो सत्य की रक्षा के लिए अच्छे से अच्छा वकील नौकरी पर रख सकते है लेकिन अब क्या कहे।
ग्रहस्थो के ऊपर परिवार का भार है, लोभ, मोह से ग्रसित है, इसलिए स्वयं को धर्म की लड़ाई में पड़ने से रोक लेते है, लेकिन आप लोग तो समाज में धर्म के रक्षक बनकर घूम रहे है, भगवान् धर्म की रक्षा करने के लिए अवतार लेते है तो आप सब लोग उनके प्रिय सैनिक है, वे प्रेम भी सबसे ज्यादा ऐसे लोगो से करते है जो धर्म और धर्म की रक्षा करते है फिर क्या हुआ? आपके धर्म और कर्तव्य केवल प्रवचनों तक ही सीमित है?
आज जग्गन्नाथ मंदिर बना है, कल केदारनाथ, बद्रीनाथ, रामेश्वर, प्रयागराज सब अपने अपने हिसाब से बनायेगे, और उसके प्रसाद का ठेका ऐसे लोगो को दिया जायेगा जो प्रसाद में शुद्धता का अर्थ केवल साफ सफाई तक ही समझते है। फिर वही प्रसाद सरकारी खर्चे पर सभी लोगो को बांटा जायेगा, तो आने वाले भविष्य में सभी हिन्दुओं का कन्वर्जन होना पक्का है की नहीं ये आप लोग ही बता देना। अगर इतना ज्ञान होने के बाद भी अगर साधू, संत और गुरु ये न बता पाए कि रोटी में थूक क्यों है, तो हम लोभ, मोह और स्वार्थ से ग्रसित गृहस्थ ही अच्छे है।
मैं यह भी जानता हूँ कि शंकराचार्य जी सहित सभी धर्मगुरु, जो मेरे लिए भगवान का सायुज्य रूप है इस शास्त्र मत पर चल रहे होंगे, जैसे कि कमल कीचड मे रहता है। इसी प्रकार से सभी संत भगवान् समाज में रहते है। लेकिन वो कमल है उसके अंदर विवेक नहीं है, हम मनुष्य है, क्या इस बात विस्मरित करना उचित है?
Disclaimer: यह लेखक के निजी विचार हैं, जिनका उद्देश्य समाज में स्वस्थ चर्चा और आत्ममंथन को बढ़ावा देना है, किसी की धार्मिक भावना को ठेस पहुँचाना नहीं। यदि किसी को असहजता हुई हो तो क्षमा प्रार्थी हूँ।
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